बदलाव की पुरवैया

मध्य प्रदेश की संस्थाओं की पहल की कहानियाँ

खेती देश का मुख्य आधार है, यह बार-बार साबित होते रहा है। भारतीय कृषि एक ऐसे दौर से गुजर रही है, जहां पर उस पर कई किस्म के संकट हैं। पिछले कई सालों से लगातार ऐसा माहौल तैयार किया गया है जिससे हमें लगता है कि खेती से कोई उम्मीद नहीं है, वह तो घाटे का ही सौदा है। दूसरी तरफ बाजार है जो चाहता है खेती से संबंधित संसाधनों पर उसका हक हो, और वह इसके लाभ का बड़ा हिस्सेदार बाह्य रह सके। एक तीसरा वर्ग है जिसे खेती में दी जाने वाली राहतें देश के खजाने पर बोझ लगती हैं, और वह इस मत पर पहुंचता है कि किसानों की रियायतें समाप्त की जानी चाहिए। वैश्विक दबावों का असर भी दिखाई देता है, जिसमें किसानों के मजदूरों में बदल जाने की स्थतियाँ नजर आती हैं।

संकट कहाँ है? और उसका हल हमें कहाँ दिखाई देता है? संकट वास्तव में है, या बनाया गया है? किन-किन आयामों पर है? और उसके लिए क्या किया जाना चाहिए। यह कुछ ऐसे सवाल हैं जो खेती किसानी के शुभचिंतकों को हर मंच पर पूछना चाहिए। हमारे अनुभवों ने बात दिया है कि खेती बचेगी तो ही देश भी बच रहेगा। न केवल आर्थिक नजरिए से बल्कि पर्यावरणीय और सामाजिक संबंधों के नजरिए से भी यह उतना ही महत्वपूर्ण है। रोजगार और आजीविका के नजरिए से भी जरूरी है और आधी आबादी को न्याय देने के नजरिए से भी।

इसलिए हमें संकटों के साथ उनके समाधान पर भी रोशनी डालते रहना चाहिए। रोशनी किसी भी हिस्से से ये। सरकार, समाज, संगठन कोई भी हो, उसे अपनी सामाजिक जवाबदेही के तहत इस सवाल पर सोचना, करना ही चाहिए। सामाजिक नागरिक संस्थाओं ने इसमें अपनी महती भूमिका निभाई है। सामाजिक-नागरिक संस्थाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे मॉडल स्थापित कर रहीं हैं जो स्थानीय प्रयवरण और समाज के अनुकूल हैं।

विकास संवाद ने इन्हीं दो छोरों को एक साथ लाने की कोशिश की है और पिछले कुछ समय में इस काम को उभारने की कोशिश की है। चार राज्यों में ऐसे कुछ मॉडल को सीधे देखा समझ है और उनकी केस स्टडीज तैयार की हैं। वैसे हमारी कोशिश देश के चार प्रमुख राज्यों में ऐसे प्रयोगों की कहानियों पर काम करने की है। इस संकलन में हमने मध्य प्रदेश की कहानियों को समाहित किया है।

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