सामाजिक संस्थाओं को आत्म विश्लेषण की जरूरत : भाग 1

सचिन कुमार जैन

यह माना जा सकता है कि सामाजिक नागरिक संस्थाओं की अवधारणा का उदय समाज की आकांक्षाओं, उसके आभासों, विरोधाभासों, संगति और विसंगतियों का एक साथ संज्ञान लेते हुए समतामूलक, न्यायपरक और मानवीय मूल्यों से संचालित होने वाला समाज बनाने के उद्देश्य से हुआ है। जब समान विचारों के कुछ लोग एक साथ मिलते हैं, संगठित होते हैं और साझा पहल करने का वायदा करते हैं, तब सामाजिक नागरिक संस्था का उदय होता है। अपने लक्ष्य तक पहुंचने की यात्रा में सामाजिक नागरिक संस्था कई साधनों का प्रयोग करती है – वंचित समूहों के बीच रह कर गरीबी-शोषण-उपेक्षा और नीतियों ने प्रभाव को समझती है, संसाधनों का अध्ययन करती है, शोध करती है, गहराई से सुनती है, क्षमताएं बढ़ाती है, प्रतिरोध करती है, सहमत और असहमत होती है, संगठन बनाती है, नेतृत्व गढ़ती है, विवेक को जगाती है, तर्क करती है, अवलोकन करती है और योजना बनाती और लागू करती है।

यह एक बेहद महत्वपूर्ण और जवाबदेयता से भरपूर भूमिका है। सामाजिक नागरिक संस्थाओं के काम के असर केवल उसके स्वयं पर ही नहीं पड़ते हैं। पूरे समाज पर, पूरी व्यवस्था पर, पूरे पर्यावरण पर पड़ते हैं। उन प्रभावों का असर केवल वर्तमान तक ही सीमित नहीं रहता है। उसका विस्तार भविष्य तक भी होता है। सामाजिक नागरिक संस्थाएं वास्तव में किनारों की भूमिका निभाते हैं, ताकि ‘राज्य’ नाम की नदी निरंकुश न हो जाए।

सामाजिक नागरिक संस्थाओं का सबसे ज्यादा महत्व इसलिए भी है कि समाज में मौजूद विसंगतियों को देखने, समझने और उन्हें शिथिल करने के लिए विकल्प खड़े करने का काम भी वही करती हैं। समाज अपने भीतर झांकता नहीं है, इसीलिए उसे अपने अन्दर मौजूद समस्याओं का अहसास ही नहीं होता है। यह अहसास कराने का काम राज्य व्यवस्था को करना चाहिए, लेकिन अपने वजूद को प्रभावी बनाए रखने की कोशिशों में ‘राज्य’ भी समाज की विसंगतियों पर मौन साध लेता है, चलने देता है शोषण, अन्याय, असमानता और भेदभाव की व्यवस्था को। तब सामाजिक नागरिक संस्थाओं की भूमिका बनती है और हमेशा प्रासंगिक बनी रहती है।

अपने तीन दशकों के अनुभव में मैंने सामाजिक नागरिक संस्थाओं के जीवन को अपने जीवन में जिया है। उसे बाहर से ही नहीं देखा, बल्कि उसकी नसों में बहा हूँ, साँसों में दौड़ा हूँ, उसके व्यवहार का साक्षी रहा हूँ। मैंने तय पाया कि बेहद महत्वपूर्ण भूमिका को धारण करने वाली सामाजिक नागरिक संस्थाएं वास्तव में अपने चरित्र और वजूद के प्रति सजग नहीं हैं। वे आत्म-विश्लेषण की प्रक्रिया से दूर ही रहती हैं। जो संस्थाएं आर्थिक संसाधनों के अभाव में होती हैं, उनका लक्ष्य केवल आर्थिक संसाधन जुटाना होता है और जो संसाधनों के मामले में सुरक्षित होती हैं, उनका जीवन कार्यक्रम की गतिविधियों को क्रियान्वित करने तक ही सीमित हो जाता है।

सामाजिक आर्थिक विकास के राजनीतिक नज़रिए को खंगालने वाली संस्थाएं और समूह अपने वैचारिक शिखर पर जाकर विराजमान हो जाते हैं और व्यावहारिक पहलुओं को त्यागते हुए वैचारिक मानकों पर दूसरी संस्थाओं और समाज से दूर हो जाते हैं। इन सबके बीच कुछेक व्यक्ति और संस्थाएं शेष रह जाते हैं, जो विचारों, कार्यक्रम और संसाधनों में सामंजस्य और आत्म-विश्लेषण की कोशिश करते रहते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि कई मामलों में सामाजिक नागरिक संस्थाएं अपने तात्कालिक उद्देश्यों को हासिल करने में कामयाब हुईं हैं। लाखों-करोड़ों लोगों के अधिकार संरक्षित हुए, कई प्रगतिशील कानून बने और लागू हुए, अन्याय का चरित्र उजागर हुआ और न्याय दिलाने की सफल कोशिशें हुईं; लेकिन क्या इन सब उपलब्धियों से समाज और व्यवस्था में सामाजिक नागरिक संस्थाओं का समुदाय एक ताकतवर इकाई के रूप में स्थापित हो पाया? समाज में और व्यवस्था में उनकी प्रासंगिकता पर गम्भीर सवाल उठते रहे हैं। जिस समुदाय के लिए ये संस्थाएं काम करती हैं, वह समुदाय सामाजिक नागरिक संस्थाओं पर होने वाले वेलों का प्रतिकार करने के लिए साथ नहीं आता है। ऐसा क्यों है? क्या अकादमिक संस्थाओं के प्रतिनिधि, मीडिया और विषय विशेषज्ञ भी सामाजिक नागरिक संस्थाओं के पक्ष में खड़े होते हैं? इसके बारे में सोचना तो होगा।

— लेखक विकास संवाद के निदेशक हैं

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