संकट में मरुस्थल का जहाज

ऊंट, ऊंटपालक और आजीविका बचाने की पहल

रेगिस्तान में ऊंट की अनिवार्यता को कभी भी नकारा नहीं जा सकता। लेकिन बढ़ते मशीनीकरण से ऊंटों पर ही संकट दिखाई दे रहा है। ऐसे में राजस्थान में काम कर रही संस्था उरमूल की तकनीकी व नीति सलाहकार संस्था डिजर्ट रिसोर्स सेंटर की पहल काफी रोचक है।

राजस्थान का पश्चिमी मैदानी अंचल थार का मरुस्थल कहलाता है। माना जाता है कि कभी यहां समुद्र रहा होगा, जो सूख गया। इसलिए इसे रेत का रेगिस्तान भी कहा जाता है। मरुस्थल में जीवन कठिन होता है। पानी बिना सब सून। यानी मनुष्यों व जानवरों को पानी की एक जैसी समस्या से जूझना पड़ता है। ऐसी कठिन परिस्थतियों में भी यहां जीवंत जीवन है और अनंत संभावनाएं मौजूद हैं।

उरमूल यानी उत्तरी राजस्थान मिल्क यूनियन लिमिटेड। यह संगठन 1984 में ट्रस्ट बना। उरमूल परिवार की संस्थाओं में से एक उरमूल सीमांत समिति भी है। इसका मुख्य केन्द्र बज्जू (बीकानेर) में स्थित है।  संस्था ने यहां अन्य कई कार्यक्रमों के साथ ऊंटपालकों व पशुपालकों की आजीविका के लिए काम किया। समुदाय के साथ मिलकर चरागाह व ओरण के संरक्षण का काम किया है। वैसे भी कृषि और पशुपालन यहां की प्रमुख आजीविका है। कुछ समय पहले तक ऊंट ही यहां आवागमन का साधन था। वैसे तो ऊंट यहां की जीवनरेखा है लेकिन अब ऊंट संकट में हैं।

बीकानेर व जोधपुर जिलों के कई गांवों में जाकर ऊंटपालक, भेड़पालक व पशुपालकों से बातचीत की ऊंटों को बचाने के साथ उनसे जुड़ी आजीविका को बचाने के लिए होनेवाले कामों की बानगी देखी।

ऊंटों पर बढ़ता संकट

ऊंट राजस्थान का राज्य पशु है। 20वीं पशुगणना के आंकड़े बताते हैं कि ऊंटों की संख्या में 34.69 फीसदी गिरावट आई है। राजस्थान में पहले ऊंटों की संख्या 3.26 लाख थी, जो अब घटकर 2.13 लाख रह गई है। ग्रामीण व ऊंटपालकों के बीच काम करनेवाले डिजर्ट रिसोर्स सेंटर (उरमूल की तकनीकी व नीति सलाहकार संस्था) के अंशुल ओझा बताते हैं कि चरागाह- ओरण में कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, और ऊंटों से होनेवाली आय में कमी के कारण ऊंटों का संकट बढ़ रहा है। इसलिए संस्था ने इसमें हस्तक्षेप किया है और कई स्तरों पर पहल की है।

सीमांत संस्था संस्था की पहल

ऊंटों के लिए साझेदारी
समिति द्वारा द कैमल पार्टनरशिप कार्यक्रम चलाया जा रहा है। जिसमें ऊंटपालन को सामाजिक उद्यम से जोड़ते हुए ऊंटनी के दूध के माध्यम से ऊंटपालकों के रोजगार को बढ़ावा दिया जा सके। इसके तहत् कई तरह की पहल की जा रही हैं। इस साझेदारी में पशु विशेषज्ञ, पशुपालन पर काम करनेवाली संस्थाएं, मार्केटिंग विशेषज्ञ, ऊंटपालक व उनके संघ शामिल हैं। यह काम बज्जू (बीकानेर जिला), चिमाणा ( जोधपुर जिला) व पोखरण (जैसलमेर जिला ) तीन कलस्टर में चल रहा है।

सामूहिक सुविधा केन्द्र (कामन फैसिलिटी सेंटर)
जब मरुस्थल में जब चारे-पानी की कमी हो जाती है तब पशुपालक अपने पशुओं के साथ पलायन कर जाते हैं। इनके निर्धारित प्रवासी मार्ग होते हैं। लेकिन इन प्रवासी मार्गों में इन्हें कई तरह की समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। जैसे ठोस जमीन पर चलने से पशु थक जाते हैं, बीमार पड़ जाते हैं। पशु व पशुपालकों की मदद करने के लिए कालू और केलान गांव में काम हुआ है, जो बीकानेर जिले के लूनकरणसर विकासखंड में हैं। इन केन्द्रों में पशुपालकों के प्रवासी मार्ग में पशुओं के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं, टीकाकरण, पानी, चारे और ठहरने की व्यवस्था की गई है। यहां पशु चिकित्सक उपलब्ध होगा। साथ ही पड़ती भूमि पर पारंपरिक चरागाह विकसित किया जा रहा है। 

ऊंटनी की दूध डेयरी
हाल में ही बज्जू (बीकानेर) में ऊंटनी की दूध डेयरी की शुरूआत हुई है, इससे ऊंटनी के दूध का प्रसंस्करण कर कई तरह के उत्पाद जैसे चाकलेट, मिठाई, बिस्किट व अन्य बनाए जा रहे हैं। इन उत्पादों की बिक्री के लिए बाजार तलाशा जा रहा है। इससे ऊंटपालक लाभांवित हो सकेंगे और उनका ऊंटों के प्रति कम हो रहा रूझान भी बढ़ेगा। इसके अलावा, पोखरण (जैसलमेर) में भी ऊंटनी की दूध डेयरी शुरू की गई है। इसके साथ ही, गांवों में ऊंटनी के दूध को एकत्र करने के लिए कलेक्शन सेंटर बनाए गए हैं।

चरागाह विकास
यहां के अधिकांश पशुपालकों का मत था कि गांव के भीतर व गांव के आसपास ही चारे की व्यवस्था होने से बहुत मदद मिलेगी। इसी के मद्देनजर संस्था ने बीकानेर जिले के लूनकरणसर विकासखंड के चार गांव भोपालाराम ढाणी, केलान, कालू और राजासर भाटीयान में चारागाह (सामूहिक संपत्ति संसाधन) विकसित किया है। चारों गांवों की कुल 98 हेक्टेयर भूमि है, जिस पर चारा और चारे के पौधे जैसे मोरिंगा (सहजन), सेंवण घास, दामण घास, खेजड़ी, बेर इत्यादि लगाए हैं। यह पूरा कार्यक्रम राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण (NRAA), भारत सरकार और खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO), संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता से किया गया। संस्था परिसर में देसी किस्मों के चारे के बीज भी हैं, जो पशुपालकों को दिए जाते हैं। गांव में चारा होने से पशुओं को चराने के लिए पशुपालकों को दूरदराज के इलाकों में नहीं जाना पड़ेगा, या कम दिनों के लिए जाना पड़ेगा। यह काम उरमूल सेतु के साथ मिलकर किया जा रहा है।

ग्राम स्तर की समितियां व ऊंटपालकों का फेडरेशन
ग्राम स्तर पर ऊंटपालकों की समितियां बनाई गई हैं और उनको मिलाकर संघ (फेडरेशन) का गठन किया गया है। तीनों क्लस्टर बज्जू, चिमाणा, और पोखरण में इस तरह की समिति व संघ हैं। सबका काम है इसमें सहायता करना व पशुपालकों को इससे जोड़ना। इसके अलावा ऊंटपालकों व पशुपालकों की समस्याओं पर विचार करना और उनके समाधान के लिए आवश्यक कदम उठाना भी इनके काम में शामिल है। साथ ही बाजार व प्रशासनिक स्तर पर तालमेल करना। अब तक इसके अंतर्गत श्री बली नाथ ऊंट पालक फेडरेशन बज्जू,श्री पाबूजी ऊंट पालक फेडरेशन, चिमाणा, श्री आईनाथ ऊंटपालक फेडरेशन, पोखरण इत्यादि का गठन हो चुका है।

नीतिगत पहल पंचायत स्तर से पैरोकारी
समिति की राज्य सरकार, पशुपालन व ऊंटपालन से जुड़े विभागों के साथ लगातार बातचीत होती रहती है। ऊंटों की साझेदारी कार्यक्रम में शासकीय विभाग भी जुड़े हैं। कई ऐसे मुद्दों पर जो पर्यावरण के साथ ऊंटपालक व पशुपालकों की आजीविका की रक्षा करते हैं, उन पर चर्चा, संवाद व पत्राचार होता रहता है। ग्रान्धी गांव (बज्जू तहसील, जिला बीकानेर) के मोड़सिंह बताते हैं कि 20 साल पहले उनके पास 20 ऊंट थे। इसके अलावा, 1000 भेड़, 300 बकरियां थीं। अब सिर्फ 10 ऊंट हैं। वह भी खुद नहीं संभालते टोला (एक साथ चरनेवाले ऊंटों के समूह) के साथ चरते हैं। मोड़सिंह बताते हैं कि ऊंट खेजड़ी की पत्तियां खाता है। इसके अलावा, बबूल, जाल, फोंग, बेर, कैर, कूमट, सीडिया, फोग, बोल्टी, रोहेड़ा, बोरटी, खींप, कींकर, सेवण घास, धामन घास, भुरट, मूरट घास, बेकर, कांटी, हरेणी, लोंणा घास भी खाता है।

वे बताते हैं पहले ऊंटों से ही सभी काम करते थे। ऊंटों से ही खेतों की जुताई व सिंचाई करते थे। माल ढुलाई का काम करते थे। कुओं (80 फुट गहरा) से पीने का पानी खीचने का काम ऊंट के माध्यम से करते थे। ऊंट गाड़ा से आना-जाना करते थे। ऊंटों की सवारी करते थे। वैसे रेगिस्तान में पैदल चलना भी मुश्किल है, इसी से दूर दूर तक आते-जाते थे। अब कुछ लोग ऊंट को नचाकर उनकी आजीविका चलाते हैं। ऊंट दौड़ भी होती है।

ऊंटों की उपयोगिता समझाते हुए वे बताते है कि इनके बालों की दरी बनती है। दांवणी (जिससे ऊंट का पैर बांधते हैं) बनती है। जेवणी (जिससे ऊंट को नाथते हैं), झीको, थैला, चटाई, बारवल (शाल) गलीचा आदि बनता है। इनका घरों में इस्तेमाल तो करते ही साथ ही यह गांव के आसपास व पड़ोस के बाजारों में बिक भी जाती है। यहां सबकी घरों में कताई होती है, और कुछ लोग हथकरघा पर इसे बुनते हैं। हथकरघा भी अब कम होते जा रहे है।
समिति द्वारा द कैमल पार्टनरशिप कार्यक्रम चलाया जा रहा है। जिसमें ऊंटपालन को सामाजिक उद्यम से जोड़ते हुए ऊंटनी के दूध के माध्यम से ऊंटपालकों के रोजगार को बढ़ावा दिया जा सके। इसके तहत् कई तरह की पहल की जा रही हैं। इस साझेदारी में पशु विशेषज्ञ, पशुपालन पर काम करनेवाली संस्थाएं, मार्केटिंग विशेषज्ञ, ऊंटपालक व उनके संघ शामिल हैं। यह काम बज्जू (बीकानेर जिला), चिमाणा ( जोधपुर जिला) व पोखरण (जैसलमेर जिला ) तीन कलस्टर में चल रहा है।

संकट में हैं ऊंट के टोले, सिकुड़ गए चरागाह
ग्रान्धी गांव के ज्ञानाराम राईका ऊंटों का टोला (ऊंटों का समूह) संभालते हैं यानी उन्हें चराते हैं और उनकी देखभाल करते हैं। वर्तमान में उनके टोले में 300 ऊंट हैं। यह ऊंट उनके व आसपास के गांव के ऊंटपालकों के हैं। वे अपने ऊंटों की पहचान के लिए दाग लगाते हैं, जिसे यहां खेंग कहते हैं। ऊंटपालक अपने ऊंटों की पहचान इसी से करते हैं। वह बताते हैं कि अब ऊंटों को चरने में काफी दिक्कत आ रही है। चरागाह-ओरण पर कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया है और उनपर खेती भी होने लगी है। वनविभाग भी रोक-टोक करता है। अधिकांश चरागाह के मैदानों के पेड़ कट गए हैं। वहीँ ज्ञानराम बताते हैं कि ऊंट बहुत कम पानी में रह जाता है। लेकिन जितना पानी चाहिए अब तो उतना भी मिल पाना मुश्किल होता है। गोचर, ओरण में कमी है। जोड़ पायतान ( नाड़ी, तलाई, जोहड़) आदि बनाने व उन्हें सहेजने की बहुत जरूरत है। वे आगे कहते हैं कि उनके पास पहले 100 गायें थीं। घी बहुत होता था, उसे हम बड़े घड़े में रखते थे और पानी को छोटे घड़ा में छुपाकर रखते थे। घी खाते थे तो चाहे जितना भी पैदल चलते थकते नहीं थे। अब गायें भी नहीं बचीं।

नहर आने से ऊंट गाड़े नहीं चलते
भलूरी (2 एम.के.डी.ए.) गांव के पोकाराम बताते हैं कि उनके पास 13 बीघा जमीन है। पहले 5 ऊंट, 15 गाय और 20 बकरियां थीं। वह बचपन से ही ऊंट गाड़ा चलाते हैं। खेती के सभी काम ऊंट से ही करते थे। जब नहर की खेती नहीं थी, तब पलायन कर गंगानगर के इलाके में चले गए थे, पर जब से नहर से सिंचाई होने लगी तब वापस खेती करने के लिए आ गए। इसके बाद से ऊंटों की उपयोगिता कम हो गई। अब ऊंट गाड़े भी नहीं चलते। 

मिठलिया गांव की सायर देवी बताती हैं कि पशुओं की देखभाल करने में ही उनका ज्यादा समय जाता है। वह बताती हैं कि वह बहुत जल्दी जागती हैं। गाय दुहती हैं। पशुओं को चारा-पानी देती हैं। उनके बांधने के स्थान को साफ करती हैं। खाना पकाती हैं, सबको खिलाती हैं। खेतों से घास काटकर लाती हैं। पशुओं को घास देती हैं, पानी पिलाती हैं, इत्यादि। सायर देवी बताती हैं कि उनके पास 1 ऊंट, 20 गायें और 10 बकरियां हैं। उनके पति बीमार हैं, लकवाग्रस्त हैं। ऐसे में वे खुद ही खेती से लेकर घर के सभी काम करती हैं। वे ऊंट को चराने भी ले जाती हैं। बहुत कठिन जीवन है उनका।

चारणवाला (बीकानेर जिला) गांव के और उरमूल सीमांत के कार्यकर्ता कालू राईका बताते हैं कि हर साल  ऊंटपालक व भेड़पालक पलायन करते हैं। वे नहरी सिंचाई वाले इलाकों व पंजाब, फिरोजपुर जाते हैं। यह आमतौर पर अक्टूबर-नवंबर में जाते हैं और जून-जुलाई में वापस आते हैं। क्योंकि जब जाते हैं, उन दिनों इस इलाके में चारे-पानी की कमी हो जाती है और जब लौटते हैं तब बारिश होने के बाद घास आ जाती है। यहां पीढ़ियों से ऐसे ही होता चला आ रहा है।

कालू राईका बताते हैं कि ऊंटपालक व भेड़पालक झुंड में चलते हैं और वे अपना डेरा खेतों में या मैदान में लगाते हैं। जिन इलाकों में जाते हैं वहां पशुओं को खेतों में पहले धान के और बाद में गेहूं, चना, के ठंडल खाने को मिलते हैं। पशुओं को किसान अपने खेतों में रूकवाते हैं, क्योंकि उनसे खाद मिलती है। पहले खाद के बदले में कुछ अनाज भी देते थे। लेकिन अब इसमें कमी आई है और भी कई दिक्कतें आ रही हैं। वह बताते हैं कि पिछली सरकार के कार्यकाल में ऊष्ट विकास योजना में ऊंटनी के बच्चों के संरक्षण व संवर्धन के लिए 10 हजार रूपए का अनुदान दिया जाता था। वर्तमान सरकार ने इसे बंद कर दिया है। इसे तत्काल शुरू करना चाहिए। ऊंट का बीमा भी करवाना चाहिए। ऊंट-ऊंटनी के लिए निःशुल्क दवाईयां दी जानी चाहिए।

ऊंटनी के दूध की कुल्फी व बिस्किट 
समिति के कार्यकर्ता सूरज सिंह ने बताया कि हम यहां की जैव विविधता का अध्ययन कर रहे हैं। घास के प्रकार, पेड़ों की प्रजातियां, औषधीय जड़ी-बूटियां, खेती की पारंपरिक फसलें, मरुस्थलीय खान-पान, ऊंटपालक, व भेड़पालकों से जुड़ा पारंपरिक ज्ञान व उससे जुड़ा लोक साहित्य का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं, जिससे इस संबंध में जागरूकता लाई जा सके।

दरियां और थैले भी बन रहे हैं
इसके अलावा, बीकानेर के बाजार में और सीधे उरमूल सीमांत से ऊंटनी के दूध व बाजरे से बने बिस्किट बेचे जा रहे हैं। बीकानेर में ऊंटनी के दूध की कुल्फी बनाकर बेची जा रही है। इसके अलावा, संस्था में पूर्व से चले रहे हस्तकला कार्यक्रम के साथ भेड़ व ऊंट के ऊन से बने उत्पादों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। हस्तकला और कसीदाकारी से करीब 4000 महिलाएं जुड़ी हैं। वे दरियां, थैले, मोजे इत्यादि बनाती हैं। आज यह थार डेजर्ट क्राफ्ट या थार मरूज कला या थार की कसीदाकारी से जानी जाती है। यहां हस्तकला को बाजारों में पहुंचाने की एक पूरी कड़ी है, जिसमें कई संस्थाएं जुड़ी हैं। इससे सीधे महिलाओं की आर्थिक स्थिति सुधरी है। उनकी आजीविका बेहतर हुई है।

ऊंटनी की डेयरी बज्जू में शुरू हो गई है, जिससे ऊंटनी के दूध से उत्पाद बनाए जा सके, उनसे होनेवाली आय से ऊंटपालकों की आजीविका को सुनिश्चित किया जा सके। दो गांव कालू व केलान में सामूहिक सुविधा केन्द्र (कामन फैसिलिटी सेन्टर) बनाए गए हैं, जहां पलायन करनेवाले पशुपालकों को उनके पशुओं के साथ ठहरने की व्यवस्था है। वहां चरागाह विकसित किए जा रहे हैं। वहां चारे-पानी की व्यवस्था होगी और पशुओं के इलाज व उनके टीकाकरण की व्यवस्था होगी।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि उरमूल सीमांत ने  ऊंट, चरागाह, जैवविविधता, ऊंटपलकों की आजीविका बचाने की महत्वपूर्ण पहल की है। इससे पशुपालकों की ओर फिर से लोगों का रूझान बढ़ा है। ऊंटनी के दूध की डेयरी से उनकी आजीविका सुनिश्चित हो रही है, उनके बने उत्पादों- बिस्किट और कुल्फी से आय बढ़ रही है। साथ ही सामूहिक सुविधा केन्द्र जैसी अनूठी पहल से पशुपालकों को बड़ी राहत मिल रही है। इससे ऊंटों के स्वास्थ्य में सुधार होगा। पारंपरिक नस्लें का भी संरक्षण व संवर्धन होगा। ऊंटों की नस्लें बचाने के लिए उन्हें अच्छा परिवेश, चारे-पानी व स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना जरूरी है।

इस पूरे काम का सिर्फ आर्थिक लाभ-हानि के नजरिए से आंकलन करना मुश्किल है। यह पहल शुरूआती चरण में है पर दीर्घकालीन नजरिए से, जैवविविधता, पर्यावरण और मरुस्थल के पारिस्थितिकीय तंत्र के हिसाब से यह पहल बहुत उपयोगी व सार्थक हैं। इससे स्थायी आजीविका का साधन भी सुनिश्चित होगा, जिससे पशुपालकों के जीवन बेहतर होगा, साथ ही पर्यावरण व जैवविविधता का संरक्षण भी होगा।

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह श्रम आधारित व पशु आधारित आजीविका है, मशीन आधारित नहीं। इससे ऊर्जा की बचत होती है, डीजल-पेट्रोल की बचत होगी, प्रदूषण नही होता और कार्बन उत्सर्जन भी नहीं होता है और पर्यावरण सुरक्षित रखने में मदद मिलती है। मरुस्थल के चरागाह पुनर्जीवित होने और वृक्षारोपण से वातावरण हरा-भरा होगा। वैसे भी मरुस्थल के लिए पशुपालन आधारित आजीविका उपयुक्त भी है। यहां की पारिस्थितिकीय में पारंपरिक पशुपालन जैसी स्थायी आजीविका टिकाऊ व पर्यावरणीय अनुकूलता पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं।

Scroll to Top