सामाजिक संस्थाओं को आत्म विश्लेषण की जरूरत : भाग 2

सचिन कुमार जैन

हमारा पहला अनुभव यह रहा है कि सामाजिक नागरिक संस्थाओं में अपने स्वयं के होने के कारण, अपनी भूमिका के बारे में सोचना बंद कर देते हैं। शायद यह भी कह सकता हूँ कि उसके बारे में सोचना शुरू ही नहीं करते हैं। जब मैं “भूमिका” शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ, तो इसका मतलब है सामाजिक नागरिक संस्थाएं अस्तित्व में क्यों आती हैं? जब राज्य है, जब बाजार है और जब समाज भी है, तब सामाजिक नागरिक संस्थाओं के होने का क्या मतलब है?

इस प्रश्न का उत्तर खोजने की तत्परता दिखाई नहीं देती है। इस प्रश्न की उपेक्षा का परिणाम यह है कि आज सामाजिक नागरिक संस्थाओं और सामाजिक पहल (सिविक स्पेस) को खत्म करने की नीति और राजनीति सक्रिय है, लेकिन सामाजिक नागरिक संस्थाओं की कहीं कोई आवाज नहीं सुनाई देती है। बस उनका कराहना सुनाई देता है। उन्हें आरोपी तो करार दिया ही गया है समाज-व्यवस्था-विकास विरोधी होने का। लेकिन सामाजिक नागरिक संस्थाएं अपना पक्ष नहीं रख पा रही हैं क्योंकि उन्होंने अपनी भूमिका को साधा ही नहीं है।

हमारा दूसरा अनुभव है स्वयं के प्रशिक्षण का। संस्थाएं जिन विषयों पर काम करती हैं, उन विषयों से जुड़े शब्दों के मायनों को मथने की पहल नहीं करती हैं। बेहद सामान्य संदर्भों में महत्वपूर्ण शब्दों का इस्तेमाल होता है, लेकिन उनके अर्थों के बारे में कोई शिक्षण-प्रशिक्षण नहीं होता है। मसलन समाज शब्द का खूब इस्तेमाल होता है, लेकिन समाज का मतलब क्या होता है? समाज का राजनीतिक पक्ष क्या है? समाज का आर्थिक पक्ष क्या है? समाज का सांस्कृतिक पक्ष क्या है? समाज का संवैधानिक मायना क्या है? क्या इन पक्षों को खोला-खंगाला जाता है?

एक और शब्द है गरीबी; गरीबी पर कार्यक्रम संचालित होते हैं, लेकिन क्या गरीबी शब्द के अर्थ को खोला जाता है? गरीबी का मतलब क्या है? बच्चों के संदर्भ में गरीबी का मतलब क्या है? महिलाओं के  संदर्भ  में गरीबी का अर्थ क्या है? तीसरे लिंग के समुदाय के लिए गरीबी का मतलब क्या है? आदिवासी के लिए गरीबी का मतलब क्या है? दलित के लिए गरीबी का मतलब क्या है? आर्थिक गरीबी और संसाधनों की गरीबी का मतलब क्या है? क्या इन बुनियादी पक्षों के बारे में समझ बनाए बिना गरीबी को मिटाने का कोई कार्यक्रम संचालित किया जा सकता है?

स्वास्थ्य और पोषण पर सघन कार्यक्रम संचालित हो रहे हैं। लेकिन स्वास्थ्य का मतलब क्या केवल अस्पताल, चिकित्सकों और दवाओं की उपलब्धता ही होता है? जीविका उपार्जन, शिक्षा और पोषण स्वास्थ्य की परिभाषा के अंग नहीं हैं? घरेलू हिंसा, जातिगत भेदभाव, असमानता, शोषण, साम्प्रदायिक हिंसा और बेरोजगारी क्या स्वास्थ्य को प्रभावित नहीं करते हैं?

वास्तव में भारत मे सामाजिक नागरिक संस्थाओं को प्रासंगिक बने रहने के लिए जरूरी है कि वे अपने आपको शिक्षित और प्रशिक्षित करें। उन्हें अपने विषयों के हर पहलू को जानना-समझना होगा।

हमारा तीसरा अनुभव है नेतृत्व की कुशलता के  संदर्भ  में; सामाजिक नागरिक संस्थाओं में साफ तौर पर दो तल होते हैं – नेतृत्व का और नेतृत्व से इतर संस्थागत समूह का; हमनें यह पाया है कि सामाजिक नागरिक संस्थाओं के भीतर नेतृत्व करने वाले लोग यह मानने लगे हैं कि उन्हें हमेशा सीखते रहने, हमेशा प्रशिक्षित होते रहने की कोई जरूरत नहीं होती है। वे हमेशा यही मानते हैं कि कहीं भी, कभी भी उनके कार्यकर्ता या कर्मचारी ही प्रशिक्षण में भाग लेंगे। प्रबंधन का एक बुनियादी का सिद्धांत है कि नेतृत्व को नेतृत्व के कौशल साथ ही सामाजिक-आर्थिक विषय के व्यापक पहलुओं की समझ और अपनी भूमिका निभाने के लिए आवश्यक कौशल भी होना चाहिए।

हमारा चौथा अनुभव रहा है सामाजिक नागरिक संस्थाओं में व्यवस्था से सम्बंधित। इस पहलू की भी व्यापक रूप से उपेक्षा की गई है। यह माना गया कि जिसका वे पालन करते हैं, वही व्यवस्था है; यह कमतर ही समझा गया कि वास्तव में व्यवस्था या नियम हैं क्या, उन्हें अच्छे से जान-समझ लिया जाए। अगर थोड़ा गहराई में जाएं तब पाएंगे कि सामाजिक नागरिक संस्थाओं पर जो सवाल खड़े किए गए हैं, उनका कारण है नियमों और व्यवस्था का पालन न होना, न कि किसी आपराधिक प्रवृत्ति का होना।

अपने इन्हीं अनुभवों से हमें यह लगा कि भारतीय  संदर्भ  में सामाजिक नागरिक संस्थाओं के “बोध” को जगाने के लिए और उन्हें सक्षम बनाने के लिए जानकारियों और विचारों की  संदर्भ  सामग्री का निर्माण किया जाए।

हमने सामाजिक नागरिक क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभा रहे कई वरिष्ठ लोगों से बातचीत की। उनके अनुभवों को जाना-समझा। इससे हमें यह पता चला कि सामाजिक नागरिक संस्थाएं “धारणा” की शिकार हैं। चूंकि उनका दायरा ज्यादातर अपने लक्षित समुदायों तक ही सीमित रहा है, इसलिए बाकी के समाज को उनकी भूमिका और साधना के बारे में जानकारी है ही नहीं। ऐसे वे सब “धारणाएं” बना लेते हैं। यह जरूरी है कि सामाजिक नागरिक संस्थाएं अब अपने लक्षित समुदायों के साथ साथ व्यापक समाज, मीडिया, जनप्रतिनिधियों, विषय विशषज्ञों, शिक्षकों, युवाओं, छात्र-छात्राओं राजनीतिक दलों से भी जुड़ें, उनसे संवाद करें।

निश्चित रूप से यह मानना होगा कि अभी सामाजिक नागरिक संस्थाओं के अपने समुदाय के सामने चुनौतीपूर्ण स्थितियां हैं। उन स्थितियों से निपटने के लिए सामाजिक नागरिक संस्थाओं को अपना भीतरी तंत्र, अपनी प्रतिरोधक क्षमता और अपनी आत्मा को तैयार करना होगा।

— लेखक विकास संवाद के निदेशक हैं

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