सकारात्मक पहल

सूखे गांव जो पानीदार हो गए

महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र हमेशा से जलसंकट से घिरा रहा है। पानी फाउंडेशन द्वारा की गई पहल से इस अंचल के कई गांवों में पानी सहेजने को लेकर जागरूकता में वृद्धि हुई है और इसके सकारात्मक परिणाम सामने भी आने लगे हैं। अब वर्ष में 10 महीने इन गांवों में पानी उपलब्ध रहता है।

महाराष्ट्र राज्य के विदर्भ अंचल में अमरावती जिला स्थित है। यह इलाका वर्षों से सूखे की मार झेल रहा है। गर्मी के मौसम के दौरान यहां पानी का संकट बहुत बढ़ जाता है। इस क्षेत्र में बारिश कम और अनियमित होती है। प्रत्येक चार-पांच साल के अंतराल में सूखे की स्थिति बन जाती है। किसानों की खुदकुशी की खबरें को लेकर भी यह अंचल चर्चा में बना रहता है। यहां मनुष्यों के लिये पेयजल और खेती में सिंचाई का संकट एवं पशुओं के लिए चारे का संकट, बढ़ती कर्जग्रस्तता के समाचार मिलते रहे हैं। इस सबके मद्देनजर इस इलाके के गांवों के लोगों ने पानी बचाने व उसे सहेजने की राह पकड़ी है। 

सतपुड़ा की गोद में बसा है गव्हाणकुंड
अमरावती जिले की वरूड तालुका का एक गांव है गव्हाणकुंड। गव्हाण यानी गायों को चारा डालने का स्थल। यहां गायें चरने के लिए इकट्ठी होती थीं और यहीं सूखी नदी का कुंड है। इसलिए इसका गव्हाणकुंड नाम पड़ा। यह गांव सतपुड़ा पहाड़ की तलहटी में बसा है। सतपुड़ा पर्वतमाला, मध्यप्रदेश के पूर्वी छोर से महाराष्ट्र में पश्चिम तक जाती है। वैसे तो यह एक सामान्य गांव है, लेकिन अपने पानी सहेजने के काम ने इसे खास बना दिया है। अब इस काम को देखने के लिए यहां लोगों का तांता लगा रहता है।

स्पर्धा से शुरू हुई पहल
पानी फाउंडेशन ने सत्यमेव जयते वाटर कप स्पर्धा शुरू की थी। इस फाउंडेशन के संस्थापकों में सिने सितारा आमिर खान व उनकी पूर्व पत्नी किरण राव शामिल हैं। महाराष्ट्र में सूखे की स्थिति से चिंतित होकर इन्होंने पानी सहेजने को प्राथमिकता दी। इस स्पर्धा के तहत् 45 दिन में जल संवर्धन व प्रबंधन का काम करना था, जो भी गांव पानी सहेजने का अच्छा काम करेंगे, उन्हें पुरस्कार मिलेगा।

गहाणकुंड के उपसरपंच प्रदीप संतोषराव मुरमकर ने बताया कि यहां सालाना वर्षा करीब 700-800 मिलीमीटर होती है। वह भी कभी कम, कभी ज्यादा। स्थानीय बोरवेल, जिनमें पहले 200 फीट पर पानी निकल आता था, अब उनका भूजल स्तर 1200 से 1500 फीट तक नीचे पहुंच गया है। वे आगे बताते हैं कि वर्ष 2018 में बहुत ही कम बारिश हुई और बांध सूखने लगा। स्थानीय कुएं सूख गए और बोरवेल का पानी बहुत नीचे चला गया। गांव में दो पानी की दो टंकियां हैं, जिनसे पीने के पानी की आपूर्ति होती थीं, लेकिन वह भी खाली हो जाती थीं। इसे पूरे क्षेत्र को भूजल सर्वेक्षण और विकास एजेंसी ( GSDA) ने डार्क जोन घोषित किया है। यहां नए कुएं और बोरवेल की खुदाई पर रोक है।

पंचायत द्वारा निजी कुओं का अधिग्रहण
अमरावती जिले के रवाला गांव के किसान व सामाजिक कार्यकर्ता चिन्मय फुटाणे बताते हैं कि जब  पानी फाउंडेशन के काम की शुरूआत हुई तब वरूड तालुका के साथ दो और तालुका कोरेगांव व अम्बेजुगाई शामिल थीं, जिनका चयन पानी सहेजने के लिए किया गया। इन दोनों में भी पानी का विकट संकट था। तकरीबन आधे कोरेगांव में पेयजल की आपूर्ति टैंकर से होती थी। अम्बेजुगाई में तो तीन चौथाई पूर्ति टैंकर से होती है। जबकि वरूड में टैंकर से पानी की आपूर्ति जैसी स्थिति नहीं थी पर संकट तो था ही।

स्थानीय युवा किसान व सामाजिक कार्यकर्ता सुमित गोरले ने बताया कि जब पानी का संकट गहरा जाता था तो ग्राम पंचायत किसानों के निजी कुओं का अधिग्रहण कर लेती थी और पानी की आपूर्ति करती थी। अभी हमने इस गांव में पानी के काम को नये सिरे से किए जाने का अवलोकन किया इस दौरान गांव की बबीता गाडलिंग, पुष्पा नागले, अक्षय सरेआम से मुलाकात हुई। जहां से हम उस स्थान पर सतपुड़ा पर्वत की तलहटी में गए, जहां उन्होंने पहाड़ से सरपट दौड़ने वाले बारिश के पानी को श्रृंखलाबद्ध बांध बनाकर रोका था। इसके लिए उन्होंने ट्रेंच ( नाली) खोदी, मिट्टी, पत्थर और गेबियन ( पत्थरों को जाली में बांधकर) बांध बनाए।

पांच लोगों से शुरू हुआ काम   
गव्हाणकुंड गांव की बबीता गाड़लिंग और पुष्पा नागले ने बताया कि हम इसके पहले काम काज के लिये घर से बाहर नहीं निकली थी। जब स्पर्धा में हमारा गांव शामिल हो गया और पानी को सहेजने की जिम्मेदारी आई तो सबसे पहले हम 5 लोग हिवरे बाजार (अहमदनगर जिला) गए, जहां हमने जलसंवर्धन व प्रबंधन का प्रशिक्षण लिया। इस समूह में सुमित गोरले, मनीष कावड़े, किशोर गाडवेल, पुष्पा नागले, बबीता गाडलिंग शामिल थे। वे आगे बताती हैं कि वहां से लौटकर हमने मोहल्ले-मोहल्ले में सभाएं कीं, नुक्कड़ नाटक किए और रैलियां कीं। स्ट्रा गेम के माध्यम से पानी की स्थिति को समझाया। इस गेम को देखने के बाद तेजी से भूजल उलीचने का प्रभाव क्या पड़ता है, यह समझ में आता है और उससे गांव के लोगों की आंखें खुल जाती हैं कि भूजल कैसे धीरे-धीरे घटता जाता है।

उन्होंने बताया कि इस गेम में एक पतीले में पानी भरा जाता है और तीन पीढ़ी के लोग इससे पानी खींचते हैं। पीढ़ियों के लोगों में क्रमशः स्ट्रा की संख्या बढ़ती जाती है, जिससे पानी कम होते जाता है, अंत में बहुत थोड़ा ही पानी बचता है। इस तरह पानी सहेजने के काम की जरूरत महसूस होती है और गांव के लोग इस काम से जुड़ जाते हैं। वे पानी से धरती का पेट भरने के काम में मदद करने आगे आते हैं। 

वे बताती हैं कि हमने अपने गांव में आकर पानी का काम तो किया ही, इसके अलावा अन्य तालुकाओं में भी प्रशिक्षण दिया। यह तालुकाएं थीं- देवड़ी ( वर्धा जिला), मोरसी ( अमरावती जिला) और चीकलधारा ( अमरावती जिला)।

श्रमदान से पानी को रोका
युवा किसान व शिक्षक रहे सुमित गोरले बताते हैं कि सबसे पहले हमने पूरे इलाके का सर्वे किया। बांध बनाने और नाली खोदने के लिए उन ढलानों को चिन्हित किया, जहां बारिश के पानी को रोकने के लिए ढांचे बनाएं जाने थे। इसके बाद वहां बांध बनाना शुरू किया। सबसे पहले पत्थर इकट्ठे किए, मिट्टी खोदी, और बांध बनाए। इस काम में स्कूली बच्चे, महिला, पुरुष सब जुड़े। बाद में पंचायत के प्रतिनिधि, शासकीय अधिकारी और कलेक्टर सबने आकर श्रमदान किया। यह पूरा जनआंदोलन बन गया। बांध स्थल पर मेले जैसा माहौल बन गया। वे आगे बताते हैं कि कोविड-19 की महामारी के समय भी यह काम जारी रहा। इस दौरान हमने धीरे-धीरे 5-5 लोगों के समूह बनाकर काम किया। कभी गड्ढे खोदे, कभी बांधों की मरम्मत की और कभी पेड़ लगाए। पशुपालन को बढ़ाने के लिए घास की नर्सरी भी लगाई। उन्होंने अपने खेत में ही 9 प्रकार की घास लगाई हैं जिनमें लेमनग्रास, दसरथ, छाया, अंजन (काली व सफेद), पवना, गिनीग्रास, मारवेल, कुसड़ शामिल हैं।

फसलों के लिए पर्याप्त पानी
गव्हाणकुंड के किसान प्रकाशचंद्र मोरले बताते हैं कि उनकी 4 एकड़ जमीन है, जिसमे संतरे और सीताफल लगाए हैं। संतरे के 500 पेड़ हैं और सीताफल के 400 पेड़ हैं, जो उन्होंने 2 साल पहले ही लगाए हैं। उन्होंने बताया कि पहले जनवरी-फरवरी में ही पानी कम हो जाता था, अब अप्रैल तक चल जाता है। पहले पानी की मोटर आधा-पौन घंटे चलती थी। अब 7-8 घंटे चलती है। वैसे ड्रिप सिंचाई से संतरों को पानी देते हैं। उनके अनुसार कि पिछले साल उन्हें संतरों की खेती से 2.5 लाख रूपए की आमदनी हुई। सीताफल के पेड़ अभी छोटे हैं, उनमें भी आगे फल लगने शुरू होंगे। इनमें पानी भी कम लगता है। इसके अलावा, अरहर की खेती भी करते हैं।

अनिल आनंदराव कावड़े बताते हैं कि उनकी 10 एकड़ जमीन है। जिसमें संतरे और तूती ( शहतूत) की खेती होती है। संतरे के पेड़ में 4-5 साल के बाद ही फल देना शुरू हो जाते हैं और 10 साल में अच्छे फल देते हैं। उन्होंने संतरे की दो किस्में लगाई है- मिरगवार और आमयावार। संतरे के पेड़ों में 8-10 दिन में पानी देना पड़ता है,पर पानी की दिक्कत होती है। जबकि उनके पास 4 कुएं व 2 ट्यूवबेल है। पहले उनमें पानी की कमी हो जाती थी। जबसे पानी सहेजने का काम शुरू किया है तब से उसका असर दिख रहा है, अब 50 फीट गहरे कुओं में 10 फीट तक पानी भरा रहता है। संतरे के पेड़ भी नहीं सूखते। पिछले साल 6 लाख रूपए का संतरा बिका, जिससे करीब 1 लाख रूपए की बचत हुई। किसान अभय राजेन्द्र उघड़े, रमेश काबड़े ने बताया कि अब यहां का जलस्तर काफी बढ़ गया है। कुओं व बोरवेल का जलस्तर बढ़ गया है। हमारे गांव के किसानों को उनकी फसलों के लिए पर्याप्त पानी मिल रहा है।

इस पूरी पहल का क्या असर पड़ा, इस पर युवा किसान व प्राकृतिक खेती करनेवाले चिन्मय फुटाणे कहते हैं कि इस इलाके में संतरे की खेती होती है, जिसमें ज्यादा पानी लगता है। चार-पांच साल में एक बार सूखा पड़ता है, जिन गांवों में पानी बचाने का काम नहीं हुआ है, वहां संतरे के पेड़ सूख जाते हैं, पर गव्हाणकुंड में बारिश के पानी की एक-एक बूंद बचाने का काम हुआ है, वहां पेड़ नहीं सूखते। वहां का जलस्तर बढ़ा है। सामान्य बारिश के दिनों से जनवरी-फरवरी तक कुओं से आधा-एक घंटे मोटर से पानी ही ले पाते थे, अब कहीं-कहीं 4-5 घंटे से 8 घंटे तक मोटरें चलती हैं। कुओं का भूजल स्तर भी बढ़ गया है। अन्य फसलों पर भी इसका स्पष्ट असर देखा जा सकता है। रबी में चने की फसलों का रकबा भी बढ़ गया है। इसके अलावा जब बारिश का अंतराल बढ़ जाता है, तब भी कुओं से सिंचाई हो जाती है। पेड़ों में ड्रिप सिंचाई होती है, जबकि अनाज में स्प्रिंकलर से पानी दिया जाता है।  

गेसमृद्ध गांव योजना

पानी फाउंडेशन से जुड़ी इंजीनियर आरती खडसे ने बताया कि इस पूरी पहल का नेतृत्व गांव का ही रहा है। वर्ष 2016 में 3 तालुका से शुरू हुआ यह काम अब 76 तालुकाओं में फैल गया है। इस काम को गहराई से अपनाने और गांवों को समृद्ध व खुशहाल बनाने के लिए वर्ष 2020 से समृद्ध गांव स्पर्धा शुरू की गई है। इसके अंतर्गत फलदार पौधे भी लगाए, लोगों को साल भर रोजगार मिला, बचत समूह सक्रिय हो गए और वे बचत करने लगे, पानी-मिट्टी का संवर्धन व संरक्षण हुआ। केंचुआ खाद, जैविक खाद बनाया जाने लगा। इतना ही नहीं निजी व सामुहिक जमीन पर पौष्टिक खाद डाली गई, जिससे पानी व मिट्टी का संवर्धन हुआ है। पानी की स्थिति जानने के लिए हमने सर्वेक्षण किया। इससे पता चला कि क्षेत्र में कुओं की संख्या बढ़ गई है। अब हम किसानों को खेती की लागत का हिसाब-किताब लिखने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। इसके अलावा, नर्सरी, पौष्टिक घास, और पेड़ लगाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। पशु आहार, जड़ी-बूटियां भी हो रही हैं। पशुपालन को बढ़ावा दे रहे हैं। इसके लिए सार्वजनिक व निजी जमीन पर घास उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। एक और नियम बनाया है जिसके तहत् 1000 की आबादी वाले गांव में कम से कम 3000 हजार पेड़ होने चाहिए। इस तरह अभी कुछ गांवों में पेड़ लगाने का काम जारी है। जिसमें सावगां, पोरगवां गांव शामिल हैं। 

गव्हाणकुंड को पुरस्कार मिले

सुमित गोरले बताते हैं कि हमारे गांव को इस काम में अच्छी उपलब्धियां प्राप्त हुई हैं। गांव को कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वर्ष 2016 में सत्यमेव जयते वाटर कप स्पर्धा में 5 लाख का उत्तेजनार्थ पुरस्कार, वर्ष 2017 में 5 लाख का सातत्य पुरस्कार और जलयुक्त सिवार की स्पर्धा में 5 लाख का पुरस्कार हासिल किया है। इस राशि का उपयोग ग्राम पंचायत की ओर से बांध की सामग्री खरीदने में, हर घर में वाटर मीटर लगाने व गांव के विकास में खर्च में किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इस पूरी प्रक्रिया में महाराष्ट्र सरकार ने भी मदद की। पूर्व मुख्यमंत्री ने इसमें काफी दिलचस्पी ली थी। अन्य योजनाओं से इस काम को जोड़ा। लोगों को इससे पानी सहेजने में प्रोत्साहन मिला।                          

कुल मिलाकर, इस पूरी पहल का अच्छा असर हुआ है। यहां पेड़ों की संख्या बढ़ी है। भूजल स्तर बढ़ा है। किसानों की खेती पहले से बेहतर हुई है, उनकी आमदनी बढ़ी है। पानी फाउंडेशन से शुरू हुई पहल को महाराष्ट्र सरकार ने भी मदद की है,जिससे इस काम में तेजी आई, इसका विस्तार हुआ और साधारणजन भी इससे जुड़े। इसके माध्यम से पूरा गांव का परिवेश बदला। गांवों में सामूहिकता व परस्पर सहयोग की भावना बनी है। पानी बचाने के साथ पशुपालन को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। उनके लिए चारा लगाया जा रहा है। महिलाओं ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। महिला सशक्तीकरण का भी यह अच्छा उदाहरण है। कुल मिलाकर, यहां  भूजल संर्वधन का सराहनीय व अनुकरणीय काम हुआ है, और इसे पेड़ लगाने व पर्यावरण रक्षा भी जोड़ने की कोशिश हुई है।  लेकिन पानी के प्रबंधन व गैर-जरूरी पानी-खर्ची गतिविधियों पर रोक लगाने की भी जरूरत है। तभी ऐसी पहल सार्थक सिद्ध हो सकती हैं और पानी के संकट का टिकाऊ समाधान निकल सकता है।

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