मध्यप्रदेश का झाबुआ आदिवासी बहुल जिला है। इसकी भौगोलिक व सांस्कृतिक रूप से अपनी अलग पहचान है। यहां के मुख्य बाशिन्दे भील, भिलाला, पटलिया आदिवासी हैं। इस जिले की सीमा गुजरात के दाहोद व राजस्थान के बांसवाड़ा को छूती है। यहां का प्रसिद्ध मेला भगोरिया है, जो होली के समय लगता है। ऐसे पारंपरिक मेलों में आदिवासियों की संस्कृति और उनके जनजीवन की झलक देखने को मिलती है।
संपर्क संस्था का परिचय
इस जिले में जमीनी स्तर पर “संपर्क समाजसेवी संस्थान” कार्यरत है। यह एक गैर सरकारी संस्था है जिसकी स्थापना वर्ष 1990 में हुई थी। संस्था का मुख्यालय रायपुरिया गांव में स्थित है। इसका कार्यक्षेत्र मुख्यतः भील आदिवासियों के बीच है। संस्था की शुरुआत श्री नीलेश देसाई ने की थी। वे मूलतः गुजरात निवासी हैं, लेकिन अब इस आदिवासी अंचल में बस गए हैं। उनकी पत्नी प्राक्षली देसाई भी बराबरी से जुड़ी हैं। गौरतलब है श्री नीलेश देसाई को जमनालाल बजाज सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है। संस्था का उद्देश्य समग्र विकास के माध्यम से समुदायों को मजबूत बनाना है। साथ ही हाशिये के लोगों को आत्मनिर्भर बनाना और समुदायों को स्वावलंबी बनाना भी इसके उद्देश्यों में शामिल है। इसके तहत् टिकाऊ आजीविकाओं को सतत् बढ़ावा देना, स्वास्थ्य और पोषण को बेहतर करना, शिक्षा और कौशल विकास को बेहतर करना, प्राकृतिक संसाधनों का विकास व प्रबंधन करना, इत्यादि काम किए जा रहे हैं।
टिकाऊ कृषि कार्यक्रम
यहां के भील आदिवासियों की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि है। संस्था ने इसके लिए टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल कृषि आधारित कार्यक्रम चलाया है। इसका उद्देश्य जैविक खेती और देसी बीजों के माध्यम से कृषि में टिकाऊपन को बढ़ाना और किसानों की आमदनी बढ़ाना है। इस कृषि कार्यक्रम से जुड़े हरीश पंवार बताते हैं कि जैविक खेती के कौशलों को प्रयोगधर्मी किसानों में विकसित किया जा रहा है। इस कार्यक्रम के तहत् खेतों में फसल की तैयारी, खेतों को सुधारना, बीजों का उत्पादन करना, बीजों का चयन, जैविक खाद को तैयार करने की विधि, जैव कीटनाशक तैयार करने की विधि, जैव कीट नियंत्रण, खेत भ्रमण इत्यादि काम किए जा रहे हैं। इस तरह इन कृषि कामों से गांव व इलाके के किसान जुड़ते हैं। जैविक खेती और देसी बीजों की खेती के इस कार्यक्रम से करीब 20 गांवों के किसान जुड़े हैं।
संस्था की कृषि में पहल
देसी बीज संरक्षण
गौरतलब हैं, भारत के प्रत्येक कृषि अंचल में अपनी भौगोलिक एवं पर्यावरणीय परिस्थितियों की दृष्टिगत स्थानीय कृषि पद्धतियां और बीज विकसित किए हैं। इन्हीं देसी बीजों के संरक्षण के लिए सामुदायिक बीज बैंक बनाया गया है। संस्था के मुख्यालय रायपुरिया में प्रमुख सामुदायिक बीज बैंक स्थित है। जहां से किसान बीज लेते हैं और फसल आने पर डेढ़ गुना वापस करते हैं। इस बीज बैंक में गेहूं की 22 किस्में मौजूद हैं। दलहन की 32 किस्में हैं, जिसमें चना, तुअर, उड़द, मूंग, मसूर, मटर इत्यादि शामिल हैं। तिलहन की 12 किस्में हैं, जिसमें मूंगफली, तिल, सोयाबीन, सूरजमुखी शामिल हैं। पौष्टिक अनाजों में कोदरा, कंगनी, राला, कुलथिया, सांवा, बावटा, बट्टी, कुरी, चीनो,भादली, सामली और गुजरा इत्यादि के बीज भी संरक्षित हैं। इसके अलावा,मक्का जो कि स्थानीय आदिवासियों का मुख्य खाद्य है उसकी भी 6 किस्में यहां हैं, जिसमें सातपानी, दूधमोंगर, खोखड़ी, हामेरी, निनोरी, साठी शामिल हैं। साथ ही देसी सब्जियों की 40 किस्में गिलकी, तोरई, कद्दू, लौकी, भिंडी, पालक, झुमकी तरोई, देसी टमाटर, मेथी, बरबटी, करेला, परवल, तिंदौरी इत्यादि के बीज संरक्षित हैं।

हरीश पंवार ने बताया कि रायपुरिया के अलावा, डाबड़ी और साड में दो सामुदायिक बीज उपकेन्द्र बनाए गए हैं। बीज देने की प्रक्रिया के अंतर्गत सबसे पहले किसानों को सामुदायिक बीज बैंक का सदस्य बनाया जाता है। इसके लिए शुल्क के रूप में 5 किलो मक्का, या 2 किलो उड़द, या 2 किलो मूंग, या 2 किलो मूंगफली या 5 किलो गेहूं या 2 किलो पौष्टिक अनाज देना होता है। यह अपने आप में अनूठा शुल्क है जो वर्तमान नकदी आधारित व्यवस्था का विकल्प देता है। सामुदायिक बीज बैंक से बीज लेने पर किसान को डेढ़ गुना अनाज वापस करना होता है। पर बीज बैंक में यह अनाज नहीं रखा जाता, इसे बेच दिया जाता है। उस राशि से बीज उत्पादक किसानों से अच्छी गुणवत्ता का बीज खरीद लिया जाता है, जिसे बीज बैंक में रखा जाता है।
जैव कीट नियंत्रण और जैविक खाद
जैविक खेती करने वाले किसान जैविक कीटनाशक व जैविक खाद खुद तैयार करते हैं। उन्हें संपर्क संस्था द्वारा इसका प्रशिक्षण दिया गया है। इसकी कई विधियां हैं,जैसे
फेरोमोन ट्रैप
इसके अंतर्गत जैविक कीटनाशक बनाकर जैव नियंत्रण किया जाता है। अन्य विधियों से भी कीट नियंत्रण किया जाता है, जैसे फेरोमोन ट्रैप( गंध पाश भी कहते हैं। इसमें एक प्लास्टिक की थैली होती है। जिसमें फेरोमोन द्रव्य की गंध होती है जो नर पतंगों को आकर्षित करती है, यह ट्रैप ऐसे बने होते हैं कि इसमें कीट अंदर जाने के बाद फंस जाते हैं और बाहर नहीं निकल पाते। इसमें पीली पट्टियों का इस्तेमाल किया जाता है।
पांच पत्ती काढ़ा
पांच पत्ती काढ़ा या इसे पंचपर्णी काढ़ा भी कहते हैं। नीम, सीताफल, धतूरा, बेशरम, अकौआ आदि की पत्तियों से काढ़ा तैयार किया जाता है। सबसे पहले इन पत्तियों पीसा जाता है। फिर इतना उबाला जाता है कि पानी आधा हो जाए, इसके बाद गोमूत्र में मिलाकर इसका छिड़काव किया जाता है। इससे कीट पतंगों के प्रकोप से फसलों का बचाव होता है।
सोया टॉनिक
इसे सोयाबीन को सड़ाकर बनाया जाता है। उसके बाद उसमें गुड़, सड़े-गले पपीते भी डाल सकते हैं। इसके बाद इसे छान लिया जाता है। इस तरल पदार्थ को फसलों में छिड़क देते हैं, जिससे फसलें अच्छी होती हैं।
नादेप
इसे तैयार करने के लिए सबसे पहले एक गड्ढा बनाया जाता है। इस गड्ढे को सफाई कर उसमें जैविक कचरे की परत बिछा देते हैं। इसके बाद गोबर के घोल को इस कचरे पर छिड़क देते हैं। हरी पत्तियों व खरपतवार की एक परत डाल देते हैं।इसके बाद पुन: गोबर डाल देते हैं। 2-3 इंच मिट्टी की परत डाल कर प्लास्टिक से ढक देते हैं। इस तरह परत दर परत भरते जाते हैं और अंत में मिट्टी डाल देते हैं। इसे पानी छिड़क कर गीला रखते हैं। लेकिन सावधानी यह रखनी होती है कि यह न ज्यादा गीला हो और ना ही ज्यादा सूखा। इस प्रकार 40-50 दिन में खाद बनकर तैयार हो जाती है। इसके अलावा, गोबर खाद, केंचुआ खाद, जीवामृत, घना जीवामृत, शडरस, यूनिक एसिड, तांबे के बर्तनवाली छाछ, कंडा पानी, इमली, महुआ की छाल का स्वरस काढ़ा तैयार किया जाता है। निम्मौली का अर्क, वेस्ट डी कम्पोजर, पंचगव्य इत्यादि बनाया जाता है। संपर्क परिसर में वर्मी कम्पोस्ट किट बने हुए हैं, जिनसे 50 किलो के 90 बैग प्रत्येक तीन महीनों में करीब 4500 किलों केंचुआ खाद तैयार होती है और वह बेची जाती है। इसे सब्जी व फूल उत्पादक किसान खरीदते हैं। इसके अलावा, जैविक नत्रजन को भी खेतों में ही तैयार किया जाता है। वैसे दलहनी फसलें नत्रजन देने का काम करती हैं जिससे रबी मौसम में गेहूं में यूरिया की जरूरत नहीं पड़ती। स्थानीय स्तर पर स्थानीय संसाधनों व किसानों की मेहनत से तैयार जैविक खाद व जैव कीटनाशक बहुत ही कम खर्च में तैयार हो जाते हैं और इन्हें बाजार से नहीं खरीदना पड़ता।

बीज उत्पादन सहकारी समिति
हरीश पंवार बताते हैं कि तामरिया, डाबडी और पेटलावद में जैविक बीज उत्पादन के लिए सहकारी समिति का गठन किया गया है। इस हेतु 21 सदस्यीय समिति बनाई गई है जो जैविक बीज उत्पादन की समस्याओं के समाधान के लिए काम करती है। यह समिति अच्छी गुणवत्ता वाले सोयाबीन और गेहूं के बीज मुहैया करवाती है। वह बीजों का उत्पादन करती है। इसके अलावा, कई किसान सोयाबीन, कपास, हल्दी और मक्का बीजों के उत्पादन में आगे आए हैं।
गांव चौपाल
संस्था के माध्यम से गांवों की चौपाल में किसानों से संवाद किया जाता है। उन्हें जैविक खेती के फायदे, तकनीक और देसी बीजों की जानकारी दी जाती है। बीजों का चयन व उपचार कैसे करें, यह भी बताया जाता है। जैविक खाद व जैविक कीटनाशक तैयार करना और उनका उपयोग करना बताया जाता है। इसके अलावा फसलों के अवलोकन के लिए किसान दौरे भी करते हैं, यह किसान समूह ऐसे किसानों के खेतों में जाकर फसल का अवलोकन करते हैं जो अच्छी जैविक खेती कर रहे होते हैं। किसान सम्मेलन भी आयोजित किए जाते हैं। प्रोसेसिंग व मार्केटिंग में भी किसानों को सहायता दी जाती है। यहां विशेषकर हल्दी में अच्छा काम हो रहा है।
बीज स्वराज मंच
संपर्क ने भारत बीज स्वराज मंच, मध्यप्रदेश का गठन किया है जिसकी शाखाएं प्रदेश के कई अन्य जिलों में हैं। इसके अलावा संपर्क संस्था सतना, डिंडौरी, और झाबुआ में राष्ट्रीय जैव विविधता अभियान का संयोजन भी कर रही है। इसका उद्देश्य भी देसी बीजों की किस्मों को बढ़ावा देना है। ज्ञातव्य है कि मध्यप्रदेश की कृषि विविधता समृद्ध रही है और यहां स्थानीय परिस्थितियों में विकसित सैकड़ों किस्में हैं। संस्था उनकों पुर्नस्थापित करने हेतु प्रयत्नशील है।
जैविक कीटनाशक तैयार करना
खाकरापाड़ा गांव ( पेटलावद तहसील) के जमनालाल की 4 बीघा जमीन है। वे अपने खेत में खरीफ मौसम में मक्का, सोयाबीन, मूंगफली बोते हैं और रबी मौसम में गेहूं की फसल लगाते हैं। पहले रासायनिक खेती करते थे, पिछले दो साल से जैविक खेती कर रहे है। रासायनिक खेती का उनका अनुभव था कि उसमें ज्यादा लागत लगती है और उसके जिसके लिए उनके पास नकदी पैसे नहीं होते थे। उन्होंने ने बताया कि जैविक खेती में खर्च नहीं होता है। हम बैलों से खुद खेती करते हैं। बीज भी घर का होता है। जैव कीटनाशक व जैव खाद भी हम खुद तैयार कर लेते हैं। जबकि रासायनिक खेती में बीज, खाद, कीटनाशक सभी बाजार से लाना पड़ता है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक पहले कीटनाशक व खाद में 8-10 हजार रुपए खर्च हो जाते थे, अब इतने रुपए की बचत हो जाती है और रसायनरहित कीट नियंत्रण भी हो जाता है। उनके अनुसार जैविक उत्पाद बेचने में कोई दिक्कत नहीं है। कुछ किसानों के घर से ही जैव उत्पाद बिक जाता है बाकी का सभी “संपर्क संस्था” खरीद लेती है। हमें बाजार में जैव उत्पाद का ज्यादा दाम मिलता है। वे आगे बताते हैं कि उनके खेत को देखने आसपास के किसान आते हैं और उनकी खेती को देखकर वे भी जैविक खेती करने को तत्पर हुए हैं। इस दौरान गांव के ही 8-10 किसानों ने जैविक खेती करना शुरू भी कर दिया है।
जैव उत्पादों के बाजार में ज्यादा दाम मिलते हैं
टेमरिया गांव ( पेटलावद तहसील) के कुलदीप आंजना की 10 हेक्टेयर जमीन है। उन्होंने उस पर जैविक खेती की शुरूआत फिलहाल 1 हेक्टेयर जमीन से की है। कुलदीप युवा किसान हैं, हाल ही उन्होंने खेती करना शुरू किया है। पिछले दो वर्षों से जैविक खेती कर रहे हैं। इसका उन्होंने संपर्क संस्था से प्रशिक्षण लिया है और वहां से जैविक खाद और जैविक कीटनाशक बनाना सीखा है। उन्होंने बताया कि उत्पादन भी अच्छा हो रहा है। एक हेक्टेयर में गेहूं का उत्पादन करीब 30 क्विंटल होता है यानी एक एकड़ में 12 क्विंटल। और एक क्विंटल 2300-2400 रूपए में बिक जाता है। जबकि सामान्य गेंहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1975 रूपए है। यानी बाजार भाव से ज्यादा दाम मिलता है। संस्था स्वयं भी जैव उत्पाद खरीद लेती है। कुछ किसान व स्थानीय नागरिक भी जैव उत्पाद खरीदते हैं। वे बताते हैं कि खरीफ में उड़द, मक्का और अरहर बोते हैं जबकि रबी में गेहूं लगाते हैं। अगर रासायनिक खेती व जैविक खेती में सबसे बड़े फर्क की बात करें तो उनके अनुसार जैविक खेती में मिट्टी की गुणवत्ता में उत्तरोतर सुधार होता है, जबकि रासायनिक खेती में मिट्टी की उर्वर शक्ति कम होती जाती है। जैविक खेती में मिट्टी की जलधारण क्षमता बढ़ती जाती है। वे बताते हैं कि रासायनिक खेती में गेहूं के लिए 15-20 दिन के अंतराल से पानी देना पड़ता है जबकि जैविक खेती के गेहूं में 25 दिन से 1 महीने में पानी दिया जा सकता है। अर्थात आधे पानी की जरुरत पड़ती है।


गेहूं की 16 किस्में, बीजों का संग्रहण व संरक्षण भी
डाबड़ी गांव ( पेटलावद तहसील) के रामलाल की अपनी 6 एकड़ जमीन है। इसमें वे गेहूं की देसी किस्में व सब्जियों की खेती करते हैं। वे बीज भी उपजाते हैं, बीजों का संग्रहण व संरक्षण करते हैं। बीज तैयार करने के लिए खेत से पकी व अच्छी बालें छांटते हैं, यह बीज बनाने का परंपरागत तरीका है। वे बताते हैं कि खेत में सभी पौधे एक से नहीं होते। कुछ जल्दी बढ़ते हैं और कुछ धीरे बढ़ते हैं। जल्दी बढ़ने वाले पौधों को ही बीज के लिए चयनित करते हैं। इसमें यह भी देखते हैं कि उस पौधे में कोई रोग न लगा हो। गेहूं की बालियां अच्छी पकी और भरी हों। ऐसे बीजों का संग्रहण कर संरक्षण किया जाता है। उनके पास गेंहू की शरबती, ग्वाला, कठिया, वांझिया, बंसी, काली बालीवाला. दाबती, पिस्सी, पैगंबरी इत्यादि किस्में हैं। वे बताते हैं कि इन गेहूं की किस्मों को उन्होंने अलग-अलग जगह से एकत्र किया है। उनके गुणधर्मों की पहचान के लिए खेत में बोया है। इनमें से कई किस्में ऐसी हैं जो लुप्त हो रही हैं। वे बताते हैं कि इनमें पिस्सी, वांझिया और कठिया कम पानी में हो जाती हैं। जबकि बंसी व शरबती स्वाद व पोषक तत्वों से भरपूर हैं।
हरीश पंवार व रामलाल जी का मानना है कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत स्तर पर कदम उठाना जरूरी है। जैसे जैविक उत्पादों का उचित दाम सुनिश्चित करना और उसी के साथ ही गांवों में खेती के साथ पशुपालन जैसे पूरक धंधों को बढावा दिया जाना चाहिए। खेतों के आसपास व मेड़ों पर फलदार वृक्षों के लगाने को बढ़ावा दिया जाए। जैव कृषि आदानों की सामग्री रियायती दामों पर उपलब्ध हो। पानी बचाने के लिए डबरी व तालाब को बढ़ावा दिया जाए। बीमा योजनाओं का किसानों को लाभ मिले, इसके लिए उन्हें किसान हितैषी व बेहतर बनाया जाए। जैविक खेती के विकल्प को गंभीरता से लिया जाए और उसे लोकप्रिय बनाने के लिए हर संभव काम किया जाए।
कुल मिलाकर, संपर्क की जैविक खेती की पहल आत्मनिर्भर खेती की दिशा में आगे बढ़ रही है। इससे एकतरफ जैविक खाद व जैविक कीटनाशक किसान खुद तैयार कर रहे हैं, इससे उन्हें रासायनिक खादों से निजात मिल रही है, सामुदायिक बीज बैंक से किसान बीज ले रहे हैं, जिससे उनकी खेती का लागत खर्च कम हो रहा है। दूसरी ओर रासायनिक खेती से उर्वरता खो चुकी मिट्टी में उत्तरोतर सुधार हो रहा है, पारंपरिक देसी बीजों का संग्रहण व संरक्षण हो रहा है।
इसके अलावा, जैविक खेती को लेकर एक आम समस्या है कि जैव उत्पादों का उचित दामों पर बिक्री न होना। परंतु विकल्प के तौर पर संपर्क संस्था ने खुद पहल कर किसानों से जैव उत्पादों की खरीदी की है। संस्था के कार्यक्रम जहां भी होते हैं, या जहां भी उनके संपर्क हैं, वहां वे जैव उत्पादों को बिक्री के लिए रखती है। और किसानों से बाजार से ज्यादा दाम में खरीदकर उपभोक्ताओं को वाजिब दाम पर उपलब्ध कराती है। जिससे किसानों को बाजार से ज्यादा दाम मिल पा रहे हैं। यानी एकतरफ उनका खेती का लागत खर्च कम हुआ है और दूसरी तरफ जैव उत्पादों के बाजार से अच्छे दाम मिले हैं, इससे उनकी आमदनी बढ़ी है। इस जैविक खेती की पहल का विस्तार झाबुआ जिले के साथ मध्यप्रदेश के अन्य जिलों में भी हो रहा है, जो प्रेरणादायक है। यानी कुल मिलाकर, किसान पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल और जो एकदूसरे से साझा कर रहे हैं। इस स्वावलंबी खेती में टिकाऊपन बढ़ रहा है। यह खेती पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित है, जैव विविधतापूर्ण है, कम लागत वाली है, रसायन मुक्त है, कम ऊर्जा प्रयोग करने वाली और श्रम आधारित है। अंततः यह समुदाय और खेती दोनों को स्वावलंबी बनाने की ओर अग्रसर करेगी।
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